Tuesday, February 18, 2020

Bhaja Govindam Mp3 | Bhaja Govindam Yesudas

Bhaja Govindam Mp3 | Bhaja Govindam Yesudas
Bhaja Govindam Bhajan | Bhaja Govindam Sadhguru
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Bhaja Govindam Mp3 | Bhaja Govindam Yesudas
भज गोविन्दम्

'आदि शंकराचार्य '

भज गोविन्दं भज गोविन्दं,
गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले,
न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥१॥

हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले मित्र, गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है॥१॥

मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णाम्,
कुरु सद्बुद्धिमं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तम्,
वित्तं तेन विनोदय चित्तं॥२॥

हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करने के लोभ को त्यागो। अपने मन से इन समस्त कामनाओं का त्याग करो। सत्यता के पथ का अनुसरण करो, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उससे ही अपने मन को प्रसन्न रखो॥२॥

नारीस्तनभरनाभीदेशम्,
दृष्ट्वा मागा मोहावेशम्।
एतन्मान्सवसादिविकारम्,
मनसि विचिन्तय वारं वारम्॥३॥

स्त्री शरीर पर मोहित होकर आसक्त मत हो। अपने मन में निरंतर स्मरण करो कि ये मांस-वसा आदि के विकार के अतिरिक्त कुछ और नहीं हैं॥३॥

नलिनीदलगतजलमतितरलम्, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं,
लोक शोकहतं च समस्तम्॥४॥

जीवन कमल-पत्र पर पड़ी हुई पानी की बूंदों के समान अनिश्चित एवं अल्प (क्षणभंगुर) है। यह समझ लो कि समस्त विश्व रोग, अहंकार और दु:ख में डूबा हुआ है॥४॥

यावद्वित्तोपार्जनसक्त:,
तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे,
वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे॥५॥

जब तक व्यक्ति धनोपार्जन में समर्थ है, तब तक परिवार में सभी उसके प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हैं परन्तु अशक्त हो जाने पर उसे सामान्य बातचीत में भी नहीं पूछा जाता है॥५॥

यावत्पवनो निवसति देहे,
तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये,
भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये॥६॥

जब तक शरीर में प्राण रहते हैं तब तक ही लोग कुशल पूछते हैं। शरीर से प्राण वायु के निकलते ही पत्नी भी उस शरीर से डरती है॥६॥

बालस्तावत् क्रीडासक्तः,
तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः,
परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः॥७॥

बचपन में खेल में रूचि होती है , युवावस्था में युवा स्त्री के प्रति आकर्षण होता है, वृद्धावस्था में चिंताओं से घिरे रहते हैं पर प्रभु से कोई प्रेम नहीं करता है॥७॥

का ते कांता कस्ते पुत्रः,
संसारोऽयमतीव विचित्रः।
कस्य त्वं वा कुत अयातः,
तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः॥८॥

कौन तुम्हारी पत्नी है, कौन तुम्हारा पुत्र है, ये संसार अत्यंत विचित्र है, तुम कौन हो, कहाँ से आये हो, बन्धु ! इस बात पर तो पहले विचार कर लो॥८॥

सत्संगत्वे निस्संगत्वं,
निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं
निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः॥९॥

सत्संग से वैराग्य, वैराग्य से विवेक, विवेक से स्थिर तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है॥९॥

वयसि गते कः कामविकारः,
शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारः,
ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः॥१०॥

आयु बीत जाने के बाद काम भाव नहीं रहता, पानी सूख जाने पर तालाब नहीं रहता, धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता और तत्त्व ज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता॥१०॥

मा कुरु धनजनयौवनगर्वं,
हरति निमेषात्कालः सर्वं।
मायामयमिदमखिलम् हित्वा,
ब्रह्मपदम् त्वं प्रविश विदित्वा॥११॥

धन, शक्ति और यौवन पर गर्व मत करो, समय क्षण भर में इनको नष्ट कर देता है| इस विश्व को माया से घिरा हुआ जान कर तुम ब्रह्म पद में प्रवेश करो॥११॥

दिनयामिन्यौ सायं प्रातः,
शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि
न मुन्च्त्याशावायुः॥१२॥

दिन और रात, शाम और सुबह, सर्दी और बसंत बार-बार आते-जाते रहते है काल की इस क्रीडा के साथ जीवन नष्ट होता रहता है पर इच्छाओ का अंत कभी नहींहोता है॥१२॥

द्वादशमंजरिकाभिरशेषः
कथितो वैयाकरणस्यैषः।
उपदेशोऽभूद्विद्यानिपुणैः, श्रीमच्छंकरभगवच्चरणैः॥१२अ॥

बारह गीतों का ये पुष्पहार, सर्वज्ञ प्रभुपाद श्री शंकराचार्य द्वारा एक वैयाकरण को प्रदान किया गया॥१२अ॥

काते कान्ता धन गतचिन्ता,
वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।
त्रिजगति सज्जनसं गतिरैका,
भवति भवार्णवतरणे नौका॥१३॥

तुम्हें पत्नी और धन की इतनी चिंता क्यों है, क्या उनका कोई नियंत्रक नहीं है| तीनों लोकों में केवल सज्जनों का साथ ही इस भवसागर से पार जाने की नौका है॥१३॥

जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः, काषायाम्बरबहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः,
उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः॥१४॥

बड़ी जटाएं, केश रहित सिर, बिखरे बाल , काषाय (भगवा) वस्त्र और भांति भांति के वेश ये सब अपना पेट भरने के लिए ही धारण किये जाते हैं, अरे मोहित मनुष्य तुम इसको देख कर भी क्यों नहीं देख पाते हो॥१४॥

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं,
दशनविहीनं जतं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं,
तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्॥१५॥

क्षीण अंगों, पके हुए बालों, दांतों से रहित मुख और हाथ में दंड लेकर चलने वाला वृद्ध भी आशा-पाश से बंधा रहता है॥१५॥

अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः,
रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः।
करतलभिक्षस्तरुतलवासः,
तदपि न मुञ्चत्याशापाशः॥१६॥

सूर्यास्त के बाद, रात्रि में आग जला कर और घुटनों में सर छिपाकर सर्दी बचाने वाला, हाथ में भिक्षा का अन्न खाने वाला, पेड़ के नीचे रहने वाला भी अपनी इच्छाओं के बंधन को छोड़ नहीं पाता है॥१६॥

कुरुते गङ्गासागरगमनं,
व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहिनः सर्वमतेन,
मुक्तिं न भजति जन्मशतेन॥१७॥

किसी भी धर्म के अनुसार ज्ञान रहित रह कर गंगासागर जाने से, व्रत रखने से और दान देने से सौ जन्मों में भी मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती है॥१७॥

सुर मंदिर तरु मूल निवासः,
शय्या भूतल मजिनं वासः।
सर्व परिग्रह भोग त्यागः,
कस्य सुखं न करोति विरागः॥१८॥

देव मंदिर या पेड़ के नीचे निवास, पृथ्वी जैसी शय्या, अकेले ही रहने वाले, सभी संग्रहों और सुखों का त्याग करने वाले वैराग्य से किसको आनंद की प्राप्ति नहीं होगी॥१८॥

योगरतो वाभोगरतोवा,
सङ्गरतो वा सङ्गवीहिनः।
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं,
नन्दति नन्दति नन्दत्येव॥१९॥

कोई योग में लगा हो या भोग में, संग में आसक्त हो या निसंग हो, पर जिसका मन ब्रह्म में लगा है वो ही आनंद करता है, आनंद ही करता है॥१९॥

भगवद् गीता किञ्चिदधीता,
गङ्गा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा,
क्रियते तस्य यमेन न चर्चा॥२०॥

जिन्होंने भगवदगीता का थोडा सा भी अध्ययन किया है, भक्ति रूपी गंगा जल का कण भर भी पिया है, भगवान कृष्ण की एक बार भी समुचित प्रकार से पूजा की है, यम के द्वारा उनकी चर्चा नहीं की जाती है॥२०॥

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,
पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे,
कृपयाऽपारे पाहि मुरारे॥२१॥

बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जा पाना बहुत कठिन है, हे कृष्ण कृपा करके मेरी इससे रक्षा करें॥२१॥

रथ्या चर्पट विरचित कन्थः,
पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थः।
योगी योगनियोजित चित्तो,
रमते बालोन्मत्तवदेव॥२२॥

रथ के नीचे आने से फटे हुए कपडे पहनने वाले, पुण्य और पाप से रहित पथ पर चलने वाले, योग में अपने चित्त को लगाने वाले योगी, बालक के समान आनंद में रहते हैं॥२२॥

कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः,
का मे जननी को मे तातः।
इति परिभावय सर्वमसारम्,
विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम्॥२३॥

तुम कौन हो, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरी माँ कौन है, मेरा पिता कौन है? सब प्रकार से इस विश्व को असार समझ कर इसको एक स्वप्न के समान त्याग दो॥२३॥

त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः,
व्यर्थं कुप्यसि मय्यसहिष्णुः।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं,
वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम्॥२४॥

तुममें, मुझमें और अन्यत्र भी सर्वव्यापक विष्णु ही हैं, तुम व्यर्थ ही क्रोध करते हो, यदि तुम शाश्वत विष्णु पद को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ॥२४॥

शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ,
मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं,
सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम्॥२५॥

शत्रु, मित्र, पुत्र, बन्धु-बांधवों से प्रेम और द्वेष मत करो, सबमें अपने आप को ही देखो, इस प्रकार सर्वत्र ही भेद रूपी अज्ञान को त्याग दो॥२५॥

कामं क्रोधं लोभं मोहं,
त्यक्त्वाऽत्मानं भावय कोऽहम्।
आत्मज्ञान विहीना मूढाः,
ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः॥२६॥

काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़ कर, स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ, जो आत्म- ज्ञान से रहित मोहित व्यक्ति हैं वो बार-बार छिपे हुए इस संसार रूपी नरक में पड़ते हैं॥२६॥

गेयं गीता नाम सहस्रं,
ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्।
नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं,
देयं दीनजनाय च वित्तम्॥२७॥

भगवान विष्णु के सहस्त्र नामों को गाते हुए उनके सुन्दर रूप का अनवरत ध्यान करो, सज्जनों के संग में अपने मन को लगाओ और गरीबों की अपने धन से सेवा करो॥२७॥

सुखतः क्रियते रामाभोगः,
पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।
यद्यपि लोके मरणं शरणं,
तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्॥२८॥

सुख के लिए लोग आनंद-भोग करते हैं जिसके बाद इस शरीर में रोग हो जाते हैं। यद्यपि इस पृथ्वी पर सबका मरण सुनिश्चित है फिर भी लोग पापमय आचरण को नहीं छोड़ते हैं॥२८॥

अर्थंमनर्थम् भावय नित्यं,
नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्।
पुत्रादपि धनभजाम् भीतिः,
सर्वत्रैषा विहिता रीतिः॥२९॥

धन अकल्याणकारी है और इससे जरा सा भी सुख नहीं मिल सकता है, ऐसा विचार प्रतिदिन करना चाहिए | धनवान व्यक्ति तो अपने पुत्रों से भी डरते हैं ऐसा सबको पता ही है॥२९॥

प्राणायामं प्रत्याहारं,
नित्यानित्य विवेकविचारम्।
जाप्यसमेत समाधिविधानं,
कुर्ववधानं महदवधानम्॥३०॥

प्राणायाम, उचित आहार, नित्य इस संसार की अनित्यता का विवेक पूर्वक विचार करो, प्रेम से प्रभु-नाम का जाप करते हुए समाधि में ध्यान दो, बहुत ध्यान दो॥३०॥

गुरुचरणाम्बुज निर्भर भक्तः, संसारादचिराद्भव मुक्तः।
सेन्द्रियमानस नियमादेवं,
द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं देवम्॥३१॥

गुरु के चरण कमलों का ही आश्रय मानने वाले भक्त बनकर सदैव के लिए इस संसार में आवागमन से मुक्त हो जाओ, इस प्रकार मन एवं इन्द्रियों का निग्रह कर अपने हृदय में विराजमान प्रभु के दर्शन करो॥३१॥

मूढः कश्चन वैयाकरणो,
डुकृञ्करणाध्ययन धुरिणः।
श्रीमच्छम्कर भगवच्छिष्यै,
बोधित आसिच्छोधितकरणः॥३२॥

इस प्रकार व्याकरण के नियमों को कंठस्थ करते हुए किसी मोहित वैयाकरण के माध्यम से बुद्धिमान श्री भगवान शंकर के शिष्य बोध प्राप्त करने के लिए प्रेरित किये गए॥३२॥

भजगोविन्दं भजगोविन्दं,
गोविन्दं भजमूढमते।
नामस्मरणादन्यमुपायं,
नहि पश्यामो भवतरणे॥३३॥

गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि भगवान के नाम जप के अतिरिक्त इस भव-सागर से पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है॥३३॥
















Bhajagovindam Bhajagovindam
Govindam Bhaja Moodhamathe
Samprapte Sannihite Kaale
Nahi Nahi Rakshati Dukrinkarane
Moodha Jaheehi Dhanaagamatrishnaam
Kuru Sadbuddhim Manasi Vitrishnaam
Yallabhase Nijakarmopaattam
Vittam Tena Vinodaya Chittam
Yaavadvittopaarjana saktah
Taavannijaparivaaro Raktah
Paschaajeevati Jarjjaradehe
Vaartaam Kopi Na Prichchati Gehe
Maa Kuru Dhanajanayauvanagarvam
Harati Nimeshaatkaalah Sarvam
Maayaamayamidamakhilam Hitvaa
Brahmapadam Tvam Pravisa Viditvaa
Suramandiratarumoolanivaasah
Sayyaa Bhootalamajinam Vaasah
Sarvaparigraha Bhogatyaagah
Kasya Sukham Na Karoti Viraagah
Bhagavadgeetaa Kinchidadheetaa
Gangaajalalavakanikaa Peetaa
Sakridapi Yena Muraarisamarchaa
Kriyate Tasya Yamena Na Charchaa
Punarapi Jananam Punarapi Maranam
Punarapi




யாவத்-வித்தோபார்ஜன ஸக்தஃ
தாவன்-னிஜபரிவாரோ ரக்தஃ |
பஶ்சாஜ்ஜீவதி ஜர்ஜர தேஹே
வார்தாம் கோ‌உபி ன ப்றுச்சதி கேஹே || 5 ||
யாவத்-பவனோ னிவஸதி தேஹே
தாவத்-ப்றுச்சதி குஶலம் கேஹே |
கதவதி வாயௌ தேஹாபாயே
பார்யா பிப்யதி தஸ்மின் காயே || 6 ||

பால ஸ்தாவத் க்ரீடாஸக்தஃ
தருண ஸ்தாவத் தருணீஸக்தஃ |
வ்றுத்த ஸ்தாவத்-சின்தாமக்னஃ
பரமே ப்ரஹ்மணி கோ‌உபி ன லக்னஃ || 7 ||

கா தே கான்தா கஸ்தே புத்ரஃ
ஸம்ஸாரோ‌உயமதீவ விசித்ரஃ |
கஸ்ய த்வம் வா குத ஆயாதஃ
தத்வம் சின்தய ததிஹ ப்ராதஃ || 8 ||

ஸத்ஸங்கத்வே னிஸ்ஸங்கத்வம்
னிஸ்ஸங்கத்வே னிர்மோஹத்வம் |
னிர்மோஹத்வே னிஶ்சலதத்த்வம்
னிஶ்சலதத்த்வே ஜீவன்முக்திஃ || 9 ||

வயஸி கதே கஃ காமவிகாரஃ
ஶுஷ்கே னீரே கஃ காஸாரஃ |
க்ஷீணே வித்தே கஃ பரிவாரஃ
ஜ்ஞாதே தத்த்வே கஃ ஸம்ஸாரஃ || 10 ||

மா குரு தனஜன யௌவன கர்வம்
ஹரதி னிமேஷாத்-காலஃ ஸர்வம் |
மாயாமயமிதம்-அகிலம் ஹித்வா
ப்ரஹ்மபதம் த்வம் ப்ரவிஶ விதித்வா || 11 ||

தின யாமின்யௌ ஸாயம் ப்ராதஃ
ஶிஶிர வஸன்தௌ புனராயாதஃ |
காலஃ க்ரீடதி கச்சத்யாயுஃ
ததபி ன முஞ்சத்யாஶாவாயுஃ || 12 ||

த்வாதஶ மம்ஜரிகாபிர ஶேஷஃ
கதிதோ வையா கரணஸ்யைஷஃ |
உபதேஶோ பூத்-வித்யா னிபுணைஃ
ஶ்ரீமச்சம்கர பகவச்சரணைஃ || 13 ||

கா தே கான்தா தன கத சின்தா
வாதுல கிம் தவ னாஸ்தி னியன்தா |
த்ரிஜகதி ஸஜ்ஜன ஸங்கதிரேகா
பவதி பவார்ணவ தரணே னௌகா || 14 ||

ஜடிலோ முண்டீ லுஞ்ஜித கேஶஃ
காஷாயான்பர பஹுக்றுத வேஷஃ |
பஶ்யன்னபி ச ன பஶ்யதி மூடஃ
உதர னிமித்தம் பஹுக்றுத வேஷஃ || 15 ||

அங்கம் கலிதம் பலிதம் முண்டம்
தஶன விஹீனம் ஜாதம் துண்டம் |
வ்றுத்தோ யாதி க்றுஹீத்வா தண்டம்
ததபி ன முஞ்சத்யாஶா பிண்டம் || 16 ||

அக்ரே வஹ்னிஃ ப்றுஷ்டே பானுஃ
ராத்ரௌ சுபுக ஸமர்பித ஜானுஃ |
கரதல பிக்ஷஸ்-தருதல வாஸஃ
ததபி ன முஞ்சத்யாஶா பாஶஃ || 17 ||

குருதே கங்கா ஸாகர கமனம்
வ்ரத பரிபாலனம்-அதவா தானம் |
ஜ்ஞான விஹீனஃ ஸர்வமதேன
பஜதி ன முக்திம் ஜன்ம ஶதேன || 18 ||

ஸுரமன்திர தரு மூல னிவாஸஃ
ஶய்யா பூதலம்-அஜினம் வாஸஃ |
ஸர்வ பரிக்ரஹ போகத்யாகஃ
கஸ்ய ஸுகம் ன கரோதி விராகஃ || 19 ||

யோகரதோ வா போகரதோ வா
ஸங்கரதோ வா ஸங்கவிஹீனஃ |
யஸ்ய ப்ரஹ்மணி ரமதே சித்தம்
னன்ததி னன்ததி னன்தத்யேவ || 20 ||

பகவத்கீதா கிஞ்சிததீதா
கங்கா ஜலலவ கணிகா பீதா |
ஸக்றுதபி யேன முராரீ ஸமர்சா
க்ரியதே தஸ்ய யமேன ன சர்சா || 21 ||

புனரபி ஜனனம் புனரபி மரணம்
புனரபி ஜனனீ ஜடரே ஶயனம் |
இஹ ஸம்ஸாரே பஹு துஸ்தாரே
க்றுபயா‌உபாரே பாஹி முராரே || 22 ||

ரத்யா சர்பட விரசித கன்தஃ
புண்யாபுண்ய விவர்ஜித பன்தஃ |
யோகீ யோக னியோஜித சித்தஃ
ரமதே பாலோன்மத்தவதேவ || 23 ||

கஸ்த்வம் கோ‌உஹம் குத ஆயாதஃ
கா மே ஜனனீ கோ மே தாதஃ |
இதி பரிபாவய னிஜ ஸம்ஸாரம்
ஸர்வம் த்யக்த்வா ஸ்வப்ன விசாரம் || 24 ||

த்வயி மயி ஸர்வத்ரைகோ விஷ்ணுஃ
வ்யர்தம் குப்யஸி மய்யஸஹிஷ்ணுஃ |
பவ ஸமசித்தஃ ஸர்வத்ர த்வம்
வாஞ்சஸ்யசிராத்-யதி விஷ்ணுத்வம் || 25 ||

ஶத்ரௌ மித்ரே புத்ரே பம்தௌ
மா குரு யத்னம் விக்ரஹ ஸன்தௌ |
ஸர்வஸ்மின்னபி பஶ்யாத்மானம்
ஸர்வத்ரோத்-ஸ்றுஜ பேதாஜ்ஞானம் || 26 ||

காமம் க்ரோதம் லோபம் மோஹம்
த்யக்த்வா‌உ‌உத்மானம் பஶ்யதி ஸோ‌உஹம் |
ஆத்மஜ்ஞ்னான விஹீனா மூடாஃ
தே பச்யன்தே னரக னிகூடாஃ || 27 ||

கேயம் கீதா னாம ஸஹஸ்ரம்
த்யேயம் ஶ்ரீபதி ரூபம்-அஜஸ்ரம் |
னேயம் ஸஜ்ஜன ஸங்கே சித்தம்
தேயம் தீனஜனாய ச வித்தம் || 28 ||

ஸுகதஃ க்ரியதே ராமாபோகஃ
பஶ்சாத்தன்த ஶரீரே ரோகஃ |
யத்யபி லோகே மரணம் ஶரணம்
ததபி ன முஞ்சதி பாபாசரணம் || 29 ||

அர்தமனர்தம் பாவய னித்யம்
னாஸ்தி ததஃ ஸுக லேஶஃ ஸத்யம் |
புத்ராதபி தனபாஜாம் பீதிஃ
ஸர்வத்ரைஷா விஹிதா ரீதிஃ || 30 ||

ப்ராணாயாமம் ப்ரத்யாஹாரம்
னித்யானித்ய விவேக விசாரம் |
ஜாப்யஸமேத ஸமாதி விதானம்
குர்வ வதானம் மஹத்-அவதானம் || 31 ||

குரு சரணாம்புஜ னிர்பரபக்தஃ
ஸம்ஸாராத்-அசிராத்-பவ முக்தஃ |
ஸேன்திய மானஸ னியமாதேவம்
த்ரக்ஷ்யஸி னிஜ ஹ்றுதயஸ்தம் தேவம் || 32 ||

மூடஃ கஶ்சின வையாகரணோ
டுக்றுண்கரணாத்யயன துரீணஃ |
ஶ்ரீமச்சம்கர பகவச்சிஷ்யைஃ
போதித ஆஸீச்சோதித கரணைஃ || 33 ||



























Radhashtakam | श्री राधाष्टक

Radhashtakam | श्री राधाष्टक 

Radhashtakam | श्री राधाष्टक

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श्री राधाष्टक || Shri Radha Ashtakam || Radhashtakam

श्री राधाष्टक श्री राधा जी को समर्पित हैं ! श्री राधाष्टक का शुक्रवार के दिन पाठ करने श्री लक्ष्मी माता की पूर्ण कृपा प्राप्ति के साथ दरिद्रता भी दूर होती हैं ! श्री राधा अष्टकम के बारे में बताने जा रहे हैं !! जय श्री सीताराम !! जय श्री हनुमान !! जय श्री दुर्गा माँ !!  

श्री राधाष्टक || Shri Radha Ashtakam || Radhashtakam

॥ श्रीराधाष्टकम् ॥
ॐ दिशिदिशिरचयन्तीं सञ्चयन्नेत्रलक्ष्मीं,
विलसितखुरलीभिः खञ्जरीटस्य खेलाम् ।

हृदयमधुपमल्लीं वल्लवाधीशसूनो-,
रखिलगुणगभीरां राधिकामर्चयामि ॥ १॥
पितुरिह वृषभानो रत्नवायप्रशस्तिं,
जगति किल सयस्ते सुष्ठु विस्तारयन्तीम् ।
व्रजनृपतिकुमारं खेलयन्तीं सखीभिः,

सुरभिनि निजकुण्डे राधिकामर्चयामि ॥ २॥
शरदुपचितराकाकौमुदीनाथकीर्त्ति-,
प्रकरदमनदीक्षादक्षिणस्मेरवक्त्राम् ।
नटयदभिदपाङ्गोत्तुङ्गितानं गरङ्गां,
वलितरुचिररङ्गां राधिकामर्चयामि ॥ ३॥
विविधकुसुमवृन्दोत्फुल्लधम्मिल्लधाटी-,
विघटितमदघृर्णात्केकिपिच्छुप्रशस्तिम् ।
मधुरिपुमुखबिम्बोद्गीर्णताम्बूलराग-,
स्फुरदमलकपोलां राधिकामर्चयामि ॥ ४॥
नलिनवदमलान्तःस्नेहसिक्तां तरङ्गा-,
मखिलविधिविशाखासख्यविख्यातशीलाम् ।
स्फुरदघभिदनर्घप्रेममाणिक्यपेटीं,
धृतमधुरविनोदां राधिकामर्चयामि ॥ ५॥
अतुलमहसिवृन्दारण्यराज्येभिषिक्तां,
निखिलसमयभर्तुः कार्तिकस्याधिदेवीम् ।
अपरिमितमुकुन्दप्रेयसीवृन्दमुख्यां,
जगदघहरकीर्तिं राधिकामर्चयामि ॥ ६॥
हरिपदनखकोटीपृष्ठपर्यन्तसीमा-,
तटमपि कलयन्तीं प्राणकोटेरभीष्टम् ।
प्रमुदितमदिराक्षीवृन्दवैदग्ध्यदीक्षा-,
गुरुमपि गुरुकीर्तिं राधिकामर्चयामि ॥ ७॥
अमलकनकपट्टीदृष्टकाश्मीरगौरीं,
मधुरिमलहरीभिः सम्परीतां किशोरीम् ।
हरिभुजपरिरब्ध्वां लघ्वरोमाञ्चपालीं,
स्फुरदरुणदुकूलां राधिकामर्चयामि ॥ ८॥
तदमलमधुरिम्णां काममाधाररूपं,
परिपठति वरिष्ठं सुष्ठु राधाष्टकं यः ।
अहिमकिरणपुत्रीकूलकल्याणचन्द्रः,
स्फुटमखिलमभीष्टं तस्य तुष्टस्तनोति ॥ ९॥
इति श्रीराधाष्टकं सम्पूर्णम् ॥ 



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राधा अष्टमी व्रत कथा || Radha Ashtami Vrat Katha || Radha Ashtami Vrat Kahani

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